तुम्हारी याद के आँसू निकल गए कब के
बचे थे जितने वो, पत्थर में ढल गए कब के।
खत भेजे तुमने मुझको खूने जिगर से लिक्खे
पढ़ भी न पाए उनको वो जल गए कब के।
कितने अंदाज़ अदाओ से, बनाए तस्वीर
हो गए अपने ही पराए उन्हें फाड़े कस के।
अँखियों के झरोखे मे सपने सजाये दिल में
फूल जो दिल में खिलाये मुरझा गए वो कब के ।
शुर्ख जोड़ा सुनहरे गहने रक्खे थे घर में मैंने
लगाई आग दुश्मनों ने वो ख़ाक़ हो जल के
खिजा जा भी न पाई बहार आ भी न पाई
मुरझाई कली दिल की ख़िजा में जल गई तप के ।
वो भी क्या दिन थे साथ निभाने की कसमें खाँई तुमने
लौट के आ भी न पाए चल दिये और की दुल्हन बनके ।
फूलों सजा था बिस्तर दिखने लगा वो खार ।
कैसा लगा होगा उन्हें मेरे दिल से हट के ।
बहार आने से पहले लुट गई दुनिया उनकी
याद आने पे घर ढून्ढ न पाए नए तामीर हो गए सब के
रोके कहने लगे,मेरी किस्मत का ये खेल है
न उधर के रहे न इधर रह गये हाथ मल के ।
ढूढते – ढूढ़ते ढूढ पाया उनका जब घर
ताला लगा, पता ये चला, मर गये “शफ़क़” कब के ।
(अशफ़ाक़ दाऊदी
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बात तो बात होती है
लिख जाये तो हर्फ़ बन जाती है
मिल जाये तो ज़िंदगी भर साथ निभाती है
बिछड़ जाये तो ज़िंदगी बर्बाद कर जाती है
लग जाये तो आग बन जाती है
सो जाये तो रात हो जाती है
खिल जाये तो फूल बन जाती है
भुझ जाये तो रख बन जाती है